सोमवार, 10 अगस्त 2015

मौन भी अभिव्यंजना है !

मौका मिलते ही पत्रकार उनके पीछे पड़ जाते हैं,पर सिर को दाएँ-बायें घुमाकर वे उनके सवालों को हवा में उड़ा देते हैं.जिस मौन को वे सत्ता में आने से पहले ललकार रहे थे,अब उसी को अपना हथियार बना लिया है.उन्होंने सम्पूर्ण ख़ामोशी अख्तियार कर ली है या यूँ कहिए कि कट्टी साध ली है।पर इसमें भी बड़ी साधना लगती है।ख़ूब बोलने वाले का एकदम से चुप्पी ओढ़ लेना आसान नहीं है।इसका भी कोई योगासन होता होगा,विदेह जैसा कुछ।यानी आप अपने को ऐसा बना लें कि जैसे आस-पास कुछ घटित ही नहीं हो रहा हो।

मौन एक तिलिस्म है।कुछ कयास लगाते हैं कि बोलने के लिए कुछ है ही नहीं सो क्यों बोलें पर जानने वाले जानते हैं कि मौन ऐसी-वैसी‘सिली’ और फ़िज़ूल बातों पर ध्यान देता भी नहीं। यह भी हो सकता है कि मौन अकेले में ही बात कर लेता हो। एक फिल्म के गाने ’मैं और मेरी तन्हाई अकसर ये बातें करती हैं’ से स्पष्ट है कि मौन का मतलब संवादहीनता नहीं होता। अपने-आप से बात करना सबसे बड़ा संवाद है। यही वजह है कि हफ्ते-दो-हफ्ते का मौन-संवाद रेडियो पर ‘मन की बात’ के रूप में प्रकट हो जाता है। इसलिए मौन रहना अपराध तो कतई नहीं है। ’एक चुप ,हजार सुख’ भी इसकी तसदीक करता है।

मौन पर कई सवाल उठ रहे हैं। यह बात जब देश के मुखिया से सम्बन्धित हो,तो बड़ी खबर बन जाती है। दरअसल,इसके पीछे भी एक तकनीकी वजह है कि वे पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब नहीं देते।वे‘डिजिटल इंडिया’ के नायक हैं इसलिए अपने मन की बात ट्विटर,फेसबुक या रेडियो पर ही बताते हैं।इससे तकनीक को बढ़ावा तो मिलता ही है, जनता में भी अपने दुःख-दर्द डिजिटल करने को उत्सुकता बढ़ेगी।इससे एक ही क्लिक से उन दुखों को डिलीट किया जा सकता है ।चुप्पी इसलिए भी है कि गाँव की जनता यह मुहावरा,’साइलेंस इज हाफ एक्सेप्टेंस’ को नहीं जानती और जो जानते हैं वो वोट नहीं डालने जाते।

उनका मौन होना पिछले वाले मौन से जुदा है।पिछला ‘मौन’ जहाँ हमेशा चुप रहता था,वहीँ यह वाला मौन ऑटोमैटिक सुविधा से लैस है।जब ज़रूरत होती है,’मौन’ मुखर हो उठता है।वैसे भी सत्ता किसी की सुनती नहीं सिर्फ़ सुनाती है,बोलती है।यह बात वही नहीं समझते जो नादान हैं।मौन कमजोरी की नहीं बलशाली होने की निशानी है।मौन स्वयं को समृद्ध करता है।

मौन को तोड़ने के लिए कई स्तरों पर प्रयास चल रहे हैं।सवाल-दर-सवाल उछाले जा रहे हैं।पत्रकार उत्सुक इसलिए भी हैं कि पड़ोसी देश ने जो टोकरी भर आम भेजे हैं,उनकी क्वालिटी क्या है ? टोकरी में आम की एक ही किस्म है या अलग-अलग ? इस बात का उत्तर मिल जाय तो कश्मीर समस्या पर भी पड़ोसी देश का नज़रिया पता लग सकता है। यदि एक ही किस्म हुई तो मतलब साफ़ है कि वह बातचीत में कोई विकल्प नहीं देना चाहता है। हाँ,यदि आमों की कई किस्में हुईं तो आम चूसने की तरह बात करने का मजा भी बढ़ जायेगा। पर यह तभी ‘किलियर’ होगा जब वह मुँह खोलेंगे।

उनके मौन को भंग करने के लिए कोई अपना ऑडियो-सन्देश भी भेज रहा है पर बिना यह जाने कि मौन के पास कान भी हैं या नहीं ! मौन यदि बहरा हुआ तो उस तक बात पहुँचाना और कठिन हो जायेगा।हाँ,तब ऐसे में कई सारे लोग मिलजुलकर नाच-गाना करें,ढोल-मजीरे बजाएं तो शायद उसकी तन्द्रा भंग हो।पर यह तभी हो सकता है, जब वह नींद में हो। यदि ‘मौन’ किसी साधना में लीन है तो जगाना असम्भव है ! साधना का एक निश्चित नियम है।वह अपने नियत समय पर ही टूटती है ।फ़िर मौन को लेकर हम इतना अर्थसंकोची क्यों हो रहे हैं ! अज्ञेय ने कहा है कि ‘मौन भी अभिव्यंजना है’। इसलिए मौन को ऐसा-वैसा मत समझिए,यह ज़रूर कोई महत्वपूर्ण चीज़ है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं।

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