मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

उनका छुट्टी पर जाना!

अब इसे फागुनी हवा का असर कहें या एक्ज़ाम और रिजल्ट का प्रेशर कि वो छुट्टी पर चले गए हैं।जब तक रहे,अपनी पूरी ताकत के अनुसार काम किया।कभी नतीजे की परवाह नहीं की।वो काम के प्रति इतने लगनशील हैं ,यह इसी से पता चलता है कि वो हर समय काम में डूबे रहते थे;इतना कि अपनी पार्टी को भी उसी तरह डुबो दिया।सामने आए भी तो ड्रोन मिसाइल की तरह ।फटाफट बमबाजी की और घुस गए अपनी खोह में।फिर वहाँ अगले काम को तमाम करने के लिए अपनी हिम्मत बटोरने में लग जाते।जब बाहर आने लायक ताकत इकट्ठी हो जाती; आते,कागज़ फाड़ते,बाजू फड़काते और चले जाते।क्रांति में क्रोध का सही मिश्रण तो कोई उनसे सीखे।उन्होंने अपनी पार्टी को कभी इतना भाव दिया ही नहीं कि वह उठकर खड़ी हो सके।उनको अंदेशा था कि ऐसे में कहीं वह देश से बाहर न चली जाय ! फ़िलहाल पार्टी ज़मीन पर ही बैठ गई है।देश इसके लिए बड़ा अहसानमंद है।ऐसे बंदे के छुट्टी पर जाने पर सवाल उठाने वाले देश-विरोधी से कम नहीं हैं।

पिछले काफी समय से वे काम पर थे।उन्हें लगता था कि बच्चों को साल में केवल एक बार ही पेपर देना पड़ता है,पर उनके साथ बहुत नाइंसाफी हुई।साल भर में पाँच बार पेपर ले लिए गए।यह भी कोई बात है ! बच्चे की जान लोगे क्या ? माँ का प्रथम दायित्व है ,बच्चे की सुरक्षा।उन्हें छुट्टी देकर कई हमलों से माँ ने बचा लिया है।यह समाज का भी धर्म है कि वह बच्चों के प्रति सहृदय रहे ।रही बात छुट्टी के बहाने मस्ती करने की,तो फागुन में बाबा को भी ऐसा करने का विशेषाधिकार होता है।वे कुछ नया थोड़ी ना कर रहे हैं फिर उनके साथ अन्याय क्यों ? वैसे भी फागुनी-माहौल में बजट-सत्र की ज़रूरत होनी ही नहीं चाहिए पर सरकार जानबूझकर जनता के साथ ‘होली’ खेलना चाहती है।विरोध तो इस परम्परा का होना चाहिए न कि काम के जंजाल से आजिज एक ‘जिम्मेदारी’ के अवकाश पर चले जाने का।

छुट्टी पर जाना राजनेताओं का मौलिक अधिकार होना चाहिए क्योंकि यह कालान्तर में एक मज़बूत हथियार साबित हो सकता है।आये दिन कोई न कोई नेता ‘दुर्लभ वचन’ उचारता है।जब उस पर खूब बवाल मच ले,तब यह कहा जा सकता है कि ‘बयान’ के वक्त नेता या मंत्री छुट्टी पर था।इसे सरकार का नहीं उसका व्यक्तिगत बयान माना जाय।इसकी काट विरोधी भी नहीं कर सकते।चिंतन के लिए भी अवकाश बड़ा सुभीता प्रदान करता है जब व्यक्ति के खाते में शून्य हो।जिन पलों को आप मौज-मस्ती की संज्ञा दे रहे हैं,हो सकता है उन पलों में वह शून्य से ज़रूरी वार्तालाप कर रहा हो।अवकाश के क्षणों में आकाश उसका सबसे निकट का मित्र होता है।चिंता भले ही व्यक्तिगत हो पर चिंतन तो सार्वभौमिक होता है।राजनेता यदि ऐसा चिंतन करते हैं तो यह शर्म नहीं गर्व की बात है।

उनके अचानक यूँ अवकाश पर चले जाने से खुद उनके अपने निर्विकार हैं।कुछ को लगता है कि वो काम पर थे ही कब,जो छुट्टी पर चले गए ! उनका तो बस नाम ही काफी है।हर जिम्मेदारी ओढ़ने के लिए पार्टी में अलग-अलग प्रकोष्ठ बने हैं।चूंकि हार की श्रंखला तनिक लम्बी है और सर्दियाँ भी कमोबेश विदा हो गई हैं,इसलिए ‘ओढ़ने-ओढ़ाने’ का कार्यक्रम गैर-ज़रूरी है।विरोधी बेवजह हल्ला मचा रहे हैं।वे कामकाज के सत्र में छुट्टी लेने को उनकी संवेदनहीनता बताते हैं जबकि असल बात तो यह है कि वे शुरू से ही बेहद संवेदनशील रहे हैं।अध्यादेशों के प्रति उनका लगाव जगजाहिर है।सरकार के हित में यही है कि उनकी गैर-मौजूदगी में अपने अध्यादेश सुरक्षित ढंग से पास करा ले।वे सरकार और अपनी पार्टी के भले के लिए ही लोगों से ‘लुकते’ रहे हैं।इसलिए उन पर दोष लगाना न्यायसंगत नहीं है।अब तो फागुन भी उफ़ान पर है ऐसे में लोग ही बौराए हुए हैं.वे तो बस ‘होली’ खेलने का पूर्वाभ्यास कर रहे हैं।

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