बुधवार, 11 सितंबर 2013

सावधान ,आगे चुनाव हैं !

Welcome To Jansandesh  Times: Daily Hindi News Paper
जनसंदेश में ११/०९/२०१३ को !

जनवाणी में ११/०९/२०१३ को

 

उसे बहुत उम्मीद थी। पिछले काफ़ी समय से वह इस इंतज़ार में था कि बस,थोड़े दिनों की बात है,उसकी सारी परेशानियाँ दूर हो जाएँगी। मंहगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ कई आंदोलनों में वह ख़ूब सक्रिय रहा। अख़बारों में रोजाना बलात्कार की खबरें उसे परेशान कर देती थीं। बहुत दिनों से उसके अंदर सरकार, व्यवस्था और राजनीति के प्रति एक ज्वालामुखी धधक रहा था। एक उम्मीद बची थी कि चुनाव में वह अपने मन की करेगा और सारी व्यवस्था को बदल कर रख देगा। इस सबसे लड़ने के लिए उसने बकायदा तख्तियाँ और बैनर बनवा लिए थे। इनमें मंहगाई,भ्रष्टाचार और बलात्कार के खिलाफ कड़े सन्देश थे। इन्हीं को लेकर वह कई बार जंतर-मंतर,इंडिया गेट और हज़रतगंज चौराहे पर लहरा चुका था,पर आज यही सब उसे बेकार लग रहे थे ।

जो अखबार लम्बे समय से मंहगाई और भ्रष्टाचार की खबरों में डूबे थे,आज अचानक खून से लाल हो गए । पहले तो वह समझ ही नहीं पाया कि यह सब कैसे और क्यों हुआ,पर जिस राजनीति को वह बदलने की सोच रहा था,उसी ने उसकी आँखें खोल दीं। अख़बारों में सभी दलों के नेता अमन-चैन की पुरजोर अपील करने लगे। सरकार ने बयान जारी कर दिया कि यह सब विरोधियों की साज़िश है। विरोधियों ने बताया कि सरकार यही सब करना चाहती है,उसे बने रहने का कोई हक नहीं है। पहले उसने सरकार के बयान पर गौर किया। वह लगने लगा कि असली सत्ता विपक्ष के हाथ में है क्योंकि सरकार भी कह रही है कि उसने कुछ नहीं किया,सब विपक्ष ने किया है। उसको इस बात का जवाब नहीं मिला कि फ़िर सरकार बनी ही क्यों ?

उसे सरकार से तो उम्मीद थी ही नहीं,सो उसने अब विपक्ष के कहे पर ध्यान दिया । उसे लगा कि जो लोग धर्म-कर्म को मानते हैं,अभी-अभी चौरासी कोस की परिक्रमा करके निपटे हैं,ज़रूर ठीक बोल रहे होंगे। उनके बयानों में मरने वालों के लिए संवेदनाएं होंगी,मलहम होगा,पर वे तो सरकार के जाने के बहाने ढूँढ रहे हैं। इस मार-काट से कोई दुखी नहीं है। सब अपनी-अपनी सम्भावनाएं टटोल रहे हैं,गिनतियाँ हो रही हैं। मार-काट के खिलाफ ज्ञापन देते हुए अख़बारों में मुस्कुराती हुई फोटो छप रही हैं। टीवी चैनलों पर सभी पाक-साफ़ दिख रहे हैं,गोया किसी दूसरे ग्रह से आए लोगों ने यह माहौल पैदा किया हो ! यह सब देख-सुनकर उसका मन खिन्न हो उठा।

वह अब तक जिस चुनाव का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था,उससे डर लगने लगा। उसने पास पड़ी तख्तियों और बैनरों को समेट लिया। वह मंहगाई,भ्रष्टाचार और बलात्कार को भूल चुका था। अब ये कोई समस्या नहीं रह गई थी। जब सबके धर्म ख़तरे में हों,तो वह भी कैसे बच सकता था ?उसने जान लिया था कि वह एक कठपुतली मात्र है। उसके बनाये मुद्दे हवा हो चुके थे,राजनीति जीत गई थी । सभी नेता चुनावों से पहले ऐसी हवा पाकर फूले नहीं समा रहे थे।  जहाँ रहनुमाओं को चुनाव का बेसब्री से इंतज़ार था वहीँ उसे चुनाव बीत जाने का !  

 

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

और किसी भी नकारेपन को उसी खाँचे में फेंक देने की सुविधा भी।

अनुभवी अंतरात्मा का रहस्योद्घाटन

एक बड़े मैदान में बड़ा - सा तंबू तना था।लोग क़तार लगाए खड़े थे।कुछ बड़ा हो रहा है , यह सोचकर हमने तंबू में घुसने की को...